01-02-76   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

रूहानी शमा और तीन प्रकार के रूहानी परवाने

सर्व प्रकार के चक्करों से छुड़ा कर चक्रवर्ता महाराजा बनाने वाले, सदा जागती ज्योति, रूहानी शमा परमपिता शिव बोले –

आज रूहानी शमा रूहानी परवानों को देख रही है। सभी परवाने एक ही शमा पर स्वाहा होने के लिए नम्बरवार प्रयत्न में लगे हुए हैं। जो नम्बरवन परवाने हैं उनको स्वयं का अर्थात् इस देह-भान का, दिन-रात का, भूख और प्यास का, अपने सुख के साधनों का, आराम का - किसी भी बात का आधार नहीं। सब प्रकार की देह की स्मृति से खोये हुए हो, अर्थात् निरन्तर शमा के लव में लवलीन हुए हो? जैसे शमा ज्योति-स्वरूप है, लाइट-माइट रूप है, वैसे शमा के समान स्वयं भी लाइट-माइट रूप हो? दूसरे प्रकार के परवाने, शमा की लाइट और माइट को देखते हुए उसकी तरफ आकर्षित ज़रूर होते हैं, समीप जाना चाहते हैं, समान बनना चाहते हैं, लेकिन देह-भान की स्मृति व देह के सम्बन्ध की स्मृति, देह के वैभवों की स्मृति, देह-भान के वश तमोगुणी संस्कारों की स्मृति समीप जाने का साहस व हिम्मत धारण करने नहीं देती है। इन भिन्न-भिन्न स्मृतियों के चक्कर में समय गँवा देते हैं! फर्स्ट नम्बर हैं लवलीन परवाने अर्थात् बाप के समान स्वरूप और शक्तियाँ धारण करने वाले, बाप के सर्व खजाने स्वयं में समाने वाले, समान बनने अर्थात् समा जाने अर्थात् मर मिटने वाले। दूसरा नम्बर - अनेक प्रकार के चक्कर काटने वाले और अनेक स्मृतियों का चक्कर काटने वाले। वह हैं समाने वाले, यह हैं सोचने वाले। तीसरे नम्बर के परवाने - शमा को देख आकर्षित भी होते, सोचते भी लेकिन दुविधा के चक्कर में रहते हैं। अर्थात् दो नाव में पाँव रखना चाहते हैं। माया के, अल्पकाल के सुख भी चाहते हैं और शमा द्वारा व बाप द्वारा अविनाशी प्राप्ति भी चाहते है। ये हैं बार-बार पूछने वाले। वह सोचने वाले और ये पूछने वाले ‘‘ऐसा करें या न करें? प्राप्ति होगी या नहीं होगी? हो सकता है, या नहीं हो सकता है? मुश्किल है या सहज है? यही एक रास्ता सही है या और भी है?’’ - ऐसे स्वयं से व अन्य अनुभवी आत्माओं से पूछने वाले। इच्छा है लेकिन ‘इच्छा मात्रम् अविद्या’ होने का साहस ही नहीं है। मिलना भी चाहते हैं, लेकिन जीते-जी मरना नहीं चाहते। जीते-जी मरने अथवा छोड़ने में ह्दय विदीर्ण होता है। ऐसे तीन प्रकार के परवाने शमा पर आते हैं। 

अब अपने-आप से पूछो कि मैं कौन-सा परवाना हूँ? अनेक प्रकार की स्मृतियों के चक्कर समाप्त हुए हैं या अब तक भी कोई-न-कोई चक्कर अपनी तरफ खींच लेता है? अगर कोई भी व्यर्थ स्मृति के चक्कर अब तक लगाते हो तो स्वदर्शन चक्रधारी, संगमयुगी ब्राह्मणों का टाइटल प्राप्त नहीं हो सकेगा! जो स्वदर्शन-चक्रधारी नहीं, वह भविष्य का चक्रवर्ता राजा भी नहीं होगा। 63 जन्म भक्ति-मार्ग के अनेक प्रकार के व्यर्थ चक्कर लगाने में गंवाया। वही संस्कार अब संगम पर भी न चाहते हुए भी क्यों इमर्ज कर लेते हो? चक्कर लगाने में प्राप्ति का अनुभव होता है या निराशा होती है? 63 जन्म चक्कर लगाते, सब-कुछ गंवाते, स्वयं को और बाप को भूलते हुए अब तक भी थके नहीं हो? कि ठिकाना मिलते भी चक्कर काटते हो? अविनाशी प्राप्ति होते, विनाशी अल्प-काल की प्राप्ति अब भी आकर्षित करती है? अब तक कोई अन्य ठिकाना प्राप्ति कराने वाला नज़र आता है क्या? या श्रेष्ठ ठिकाना जानते हुए भी अल्पकाल के ठिकाने आईवेल अर्थात् ऐसे समय के लिये बना कर रखे हैं? ऐसे भी बहुत चतुर हैं। लेने के समय सब लेने में होशियार हैं, लेकिन छोड़ने के समय बाप से चतुराई करते हैं। क्या चतुराई करते हैं? छोड़ने के समय भोले बन जाते हैं। ‘‘पुरुषार्थी हैं, समय पर छूट जावेगा, सरकमस्टाँसिज़ ऐसे हैं, हिसाब-किताब कड़ा है, चाहता हूँ लेकिन क्या करूँ? धीरे-धीरे हो ही जायेगा’’ - ऐसे भोले बन बातें बनाते हैं। नॉलेजफुल बाप को भी नालेज देने लग जाते हैं! कर्मों की गति को जानने वाले को अपनी कर्म-कहानियाँ सुना देते हैं। और लेते समय चतुर बन जाते हैं। चतुराई में क्या बोलते हैं - ‘‘आप तो रहमदिल हो, वरदाता हो। मैं भी अधिकारी हूँ, बच्चा बना हूँ तो पूरा अधिकार मुझे मिलना चाहिये।’’ लेने में पूरा लेना है और छोड़ने में कुछ-न-कुछ छुपाना है अर्थात् कुछ-न-कुछ अपने पुराने संस्कार, स्वभाव व सम्बन्ध - वह भी साथ-साथ रखते रहना है। तो चतुर हो गये ना। लेंगे पूरा लेकिन देंगे यथा-शक्ति। ऐसे चतुराई करने वाले कौनसी प्रारब्ध को पायेंगे। ऐसे चतुर बच्चों के साथ ड्रामा अनुसार कौन-सी चतुराई होती है? 

स्वर्ग के अधिकारी तो सब बन जाते हैं, लेकिन राजधानी में नम्बरवार तो होते ही हैं ना। स्वर्ग का वर्सा बाप सबको देता है, लेकिन सीट हरेक की अपने नम्बर की है। तो ड्रामा-अनुसार जैसा पुरूषार्थ, वैसा पद स्वत: प्राप्त हो जाता है। बाप नम्बर नहीं बनाते, किसी को राजा का, किसी को प्रजा का ज्ञान अलग-अलग नहीं देते; किसी को सूर्यवंशी, किसी को चन्द्रवंशी की अलग पढ़ाई नहीं पढ़ाते किसी को महारथी, किसी को घोड़ेसवार की छाप नहीं लगाते, लेकिन ड्रामा के अनुसार जैसा और जितना जो करता है वैसा ही पद प्राप्त कर जाता है। इसलिए जैसा लेने में चतुर बनते हो वैसे देने में भी चतुर बनो, भोले न बनो! माया की चतुराई को जानकर मायाजीत बनो। चेक करो कि एक यथार्थ ठिकाने की बजाय और कोई अल्प-काल के ठिकाने अब तक रह तो नहीं गये हैं; जहाँ न चाहते हुए भी बुद्धि चली जाती है? बुद्धि के कहीं जाने का अर्थ है कि ठिकाना है। तो सब हद के ठिकाने चेक करके अब समाप्त करो। नहीं तो यही ठिकाने सदाकाल के श्रेष्ठ ठिकाने से दूर कर देंगे। बाप श्रीमत स्पष्ट देते हैं कि ऐसे करो लेकिन बच्चे ‘ऐसे को कैसे’ में बदल लेते हैं। ‘कैसे’ को समाप्त कर, जैसे बाप चला रहे हैं, ऐसे चलो। अच्छा! 

शमा-समान लाइट-हाउस, माइट-हाउस नम्बरवन परवाने, अनेक चक्कर समाप्त कर स्वदर्शन चक्रधारी बनने वाले, विश्व के मालिक बनने के अधिकार को प्राप्त करने वाले, बाप की श्रीमत पर हर कदम उठाने वाले, ऐसे कदमों में पद्मों की श्रेष्ठ कमाई जमा करने वाले, सदा लवलीन रहने वाले परवानों को बाप शमा का याद-प्यार और नमस्ते! 

इस मुरली का सार

1. अगर कोई भी व्यर्थ स्मृति के चक्कर अब तक लगाते हो तो स्वदर्शन-चक्रधारी, संगम युगी ब्राह्मणों का टाइटल प्राप्त नहीं हो सकेगा। 

2. नम्बरबन परवाने वही है जो निरन्तर शमा के लव में लवलीन हुए हो, जो बाप के समान स्वरूप और शक्तियाँ धारण करने वाले हो, बाप के सर्व खज़ाने स्वयं में समाने वाले हो, समान बनने अर्थात् मर मिटने वाले हो।